अवनीश भाई से यह कविता काफी मुश्किल से हासिल कर पाया। वह लिखते हैं लेकिन छपते नहीं हैं। कई बार मेरी जिद पर भी वह नहीं पसीजे तो मैं उनकी डायरी चुरा लाया हूं। यह कविता बानगी है। आगे भी दिया करूंगा। उनकी नदी पर लिखी कविताएं बहुत सुंदर हैं। उनके बारे में सिर्फ इतना कि बच्चों के लिए उनकी किताबें तैयार करते हैं और बेसिक शिक्षा विभाग में सर्वशिक्षा अभियान के जिला समन्वयक हैं।
एक पूरी शाम
मेरे घर में ठहरना चाहती थी
उन पंछियों की तरह
पूरी उडान की हौंस पूरी कर
जो टोह रहे होते हैं नीड
किसी भी ऋतु में
मगर मैं अपने घर में था ही कहां!
बचपन में एक बार खूब नाराज होकर
कहा था मां ने
देखना एक दिन तू मर जाएगा!
मैं नहीं जानता था तब
नहीं जानता था तब
मां को तब भी पता था
शहर में मेरे होने का मतलब
..................
डा. अवनीश यादव
6 comments:
आशय आइने की तरह साफ है। शहर में (मरे) होने का मतलब.....
मां को तब भी पता था
शहर में मेरे होने का मतलब
महोदय की रचना की जितनी तारीफ की जाए कम है.
इन्हें छापते रहे, अच्छी रचनाएं समंदर मे तैरने के लिए होती हैं---
शुभकामनाएं.
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कुछ ग़मों की दीये
बहुत सुन्दर प्रस्तुति| धन्यवाद|
लेखन के मार्फ़त नव सृजन के लिये बढ़ाई और शुभकामनाएँ!
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आलेख-"संगठित जनता की एकजुट ताकत
के आगे झुकना सत्ता की मजबूरी!"
का अंश.........."या तो हम अत्याचारियों के जुल्म और मनमानी को सहते रहें या समाज के सभी अच्छे, सच्चे, देशभक्त, ईमानदार और न्यायप्रिय-सरकारी कर्मचारी, अफसर तथा आम लोग एकजुट होकर एक-दूसरे की ढाल बन जायें।"
पूरा पढ़ने के लिए :-
http://baasvoice.blogspot.com/2010/11/blog-post_29.html
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