Tuesday, August 16, 2011

...काश ये दुनिया तीन घंटे की फिल्म होती



सौ सवाल हैं। प्रकाश झा ने इनके जवाब भी दिए हैं...अपनी नई विवादित फिल्म आरक्षण के जरिए। बहस भी उनने छेड़ी है और इस बहस का सकारात्मक उपसंहार भी उन्होंने ही किया है। वैसे मेरी राय में इसे सिर्फ एक फिल्म मानें तो ये नाइंसाफी होगी। ये बहुत पुरानी बात है..कहने की जरूरत नहीं कि फिल्म औऱ साहित्य समाज का दर्पण होते हैं। पर प्रकाश झा ने अपने खास अंदाज में न सिर्फ आइना दिखाया है, बल्कि उसका समाधान भी सुझाया है। फिल्म देखने के बाद सच पूछिए तो मुझे लगा कि आरक्षण के बहाने इस फिल्म में शिक्षा के मौजूदा ढांचे पर सवाल उठाए हैं। मैं दिल्ली के एक मॉल के सिनेमा हाल में फिल्म देखने गया। कुछ सतही मानसिकता के लोगों ने कुछ एक डायलॉग पर तालियां बजाई, हल्की टिप्पणियां की। पर मेरी राय में कहीं से किसी की भावनाएं आहत करने जैसा कुछ नहीं किया गया है इस फिल्म में। बेहद संतुलन बनाया गया है। अगर पीएल पुनिया जी इस फिल्म को देख लेते तो बेहतर रहता। वैसे जैसा कुछ फिल्म में घटा है, वैसा ही इस फिल्म के साथ हुआ है। देश और समाज को कैसे गिनती के कुछ पूंजीपति, राजनेता, जातीय संगठनों के तथाकथित अगुवा कैसे खोखला कर रहे हैं। इसे देखना है तो अपने इर्द-गिर्द देखिए और न दिखे तो यह फिल्म देखिए।
फिल्म के पहले सीन में एक दलित युवक दीपक कुमार का इंटरव्यू चल रहा होता है। बोर्ड के लोग पहले उससे उसका सरनेम जानने की कोशिश करते हैं फिर उसका बैकग्राउंड। बाद में वे कहते हैं कि जिस संस्थान के लिए वह इंटरव्यू देने आया है उसमें तो अभिजात्य वर्ग (एलीट क्लास) के स्टूडेंट्स पढ़ते हैं और उन्हें न केवल मैनर्स सिखाए जाते हैं बल्कि बॉडी लैंग्वैंज तक के बारे में बताया जाता है। इस पर कैंडीडेट का जो जवाब होता है वह आप खुद सिनेमा में सुनें तो बेहतर होगा। वही कैंडीडेट (सैफ)जब एक सवर्ण दोस्त के तानों के जवाब में कहता है कि ठीक है रेस शुरू हो पर इसकी स्टार्टिंग लाइन भी एक हो। आप की मां एसी कमरे से निकलकर मेरी मां की तरह लोगों के घरों में काम करे। आप की बहन मेरी बहन की तरह बस्ती के एक मात्र नल से एक घंटे लाइन में लगकर एक घड़ा पानी भरकर लाए।....
इस देश में दो भारत बसते हैं....
ये तो नहाते भी नहीं...
इस तबेला कोचिंग को खत्म करना है..
मैं मां हूं भारत माता नहीं,,,,
सरीखे डायलॉग मन को छूते हैं। महानायक महानायक हैं। अभिनय के शलाका पुरुष। मनोज वाजपेयी महान कलाकार हैं। सैफ ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है तो दीपिका ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। इस फिल्म में एजुकेशन के व्यावसायीकरण पर जबरदस्त चोट है। उसका समाधान भी है। मेहनत ही सफलता की कुंजी है ये संदेश भी है।
फिल्म का सुखांत होता है.. पर काश जिंदगी और ये दुनिया तीन घंटे की फिल्म होती तो सारी समस्या बस एक थिएटर में खत्म होती। पर सोचना होगा। देखना होगा। समझना होगा। सतर्क रहना होगा। आखिरकार जिंदगी एक अभिनय ही तो है। है ना...आप बताओ...
महानायक को कोटि कोटि नमन। मनोज वाजपेयी ने निगेटिव रोल में फिर बता दिया कि वे मनोज वाजपेयी हैं। दीपिका इतनी गंभीर कभी नहीं दिखी। ओंकारा वाले सैफ,,,गजब। अंत में प्रकाश झा को साधुवाद.. जिन्होंने बेहतर समाधान सुझाया है।

Saturday, June 11, 2011


बसंत से एक दिन पहले सुरमई सांझ के वक्त लिखी गई यह पंक्तियां एक कोमल ह्दय की भावनाएं हैं। बहुत समय बाद चिट्ठियां याद आईं। इन्हें सहेजना जरूरी लग रहा है, इसलिए ब्लाग पर दे रहा हूं.।

यह महज एक फूल नहीं है....
पिहू,
आज एक फूल भेज रहा हूं। यूं तो आपको तमाम फूल मिलते होंगे मगर यह फूल उन फूलों से काफी अलग है। आप पूछेंगी अलग क्यों। आखिर सवाल पूछना तो आपकी फितरत रही है और तुरंत ही उसका जवाब देना हमारी आदत। तो जनाब यह फूल अलग है इस लिए क्यों कि यह मेरे प्यार से पगा हुआ है। यह कोई बजारू फूल नहीं है जो दस रुपये के मुड़े-तुड़े नोट के बदले किसी दुकानदार से खरीदा गया हो। यह नितांत निजी फूल है। मेरा अपना फूल। छह महीने पहले मैंने तुम्हें पहली बार देखा था। बाजार जा रही थी तुम। रिक्शे पर बैठी। हाथ से दुपट्टे को संभालते हुए। सामान से भरे थैले को पकड़े हुए। मैं तो थम सा गया था उस एक ही पल में। पता न था कि यह पल कभी इस तरह से लौट कर आने वाला है पर वो आया। वह भी अपने सुनहरे रुप में। नई जगह र्कोंचग पढ़ने पहुंचा तो तुम भी नजर आईं। मुझे खुद अपनी किस्मत से रश्क हो रहा था। मेरी किस्मत इतनी अच्छी है इसका तो कभी अहसास ही न था। तुम मिलीं, बातें हुईं, मुलाकातें बढ़ीं और मैं तुम्हारा होता चला गया। कई बार लगा कि शायद तुम भी मेरी हो रही हो। लगा कि शायद मैं और तुम ‘हम’ हो रहे हैं, पर कभी पूछ नहीं पाया। तुम्हे फूलों का शौक था। सोचा कि एक फूल मैं भी तुम्हें दूं पर दिया नहीं। हां एक पौधा लाकर जरुर अपने छोटे से घर के नन्हें से आंगन में लगा लिया। गुलाब का पौधा। पहली बार लगाया था कोई पौधा। स्कूल से लेकर कालेज तक वृक्षारोपड़ पर खूब भाषण दिए। निबंध भी लिखे पर पौधा लगाया कभी नहीं। इस बार लगाया। पहली बार। तुम्हारे लिए। अल सुबह उठते ही उसमें पानी डालता। थोड़ी सी खाद भी लेकर आया था। घर से निकलते और घुसते हर बार मैं उसे जरूर देखता। आखिर एक दिन उस पर फूल खिल ही गया। लाल गुलाब। सुर्ख लाल बिल्कुल उसी दुपट्टे के रंग का जो तुम उस दिन रिक्शे पर ओढ़कर निकली थीं। हमारी पहली मुलाकात का रंग। यह वही फूल है पिहू। मेरा फूल जो इस धरती पर केवल इस लिए आया कि मैं तुम्हें उसे देकर कह सकूं कि यह महज एक फूल नहीं है.।
आशीष दीक्षित

मैं जानता हूं यह विस्थापन नहीं
कम से कम यह विस्थापन तो नहीं ही है, पर दर्द इसका भी किसी विस्थापन से कम नहीं है। आप एक गंवई जगह में लगातार बिना किसी रोक-टोक के बिना किसी अनमनेपन के 23-24 साल रहते हैं और एक दिन आपको वहां से नई जगह के लिए चलना पड़ता है। नई जगह बहुत अच्छी है, बहुत ही अच्छी। यहां मन लगते किसी की भी देर नहीं लगती। मन लग जाता है पर फिर भी एक शून्य तो है ही। यहां आने के बाद हम तमाम नए दोस्त बनाते हैं पर वे दोस्त कहां जिनके साथ लकड़ी की काठी से लेकर साइकिल की कैंची तक और फिर दो पहिया फर्राटा से लेकर एशिया के सबसे बड़े उपक्रम भारतीय रेल पर सफर किया था। जिनके घर घुसकर हम हल्ला मचाते थे। कई बार आस-पास खेलते हुए हम उनके घर के बिल्कुल अंदर की तरफ बनी कोठरी में घुस जाते थे। हैं कोई जो हमें ढूंढ़ पाए। नहीं हैं न वे दोस्त पर यह जगह अच्छी है। बहुत अच्छी है यह जगह। यहां एक से बढ़कर एक पार्क हैं। पार्क में तमाम पेड़ हैं। झूलों की तो भरमार है। बस वो पाकड़ यहां नहीं दिखी जिस पर हमने हर बार तीज पर झूला डाला था। उस झूले पर खुद तो कभी नहीं झूले पर हमारी बहिनें और हमारे दोस्तों की बहिनें तो खूब झूलीं। वो वाला आम का पेड़ भी नहीं मिला जिसका एक भी आम ऐसा नहीं था जो हमारी लग्गी की जद में न आता। मिला तो वो अमरुद भी नहीं जिस पर कभी अमरूद पक ही नहीं पाए। हमने लगते ही उन्हें तोड़ने की आदत तो जो डाल ली थी। खैर कुछ भी हो यह जगह है तो बहुत ही अच्छी। कहीं भी जाना है सवारी हाजिर। आराम से बैठकर चले जाओ। पर हमें यह आराम भाता ही कहां। हमें तो विक्रम पर लटककर जाने में ही मजा आता है। विक्रम के गेट पर क्लीनर के साथ मैं लटक जाता था तो पीछे मेरे तीन दोस्त। हाईस्कूल के पेपर हमने ऐसे ही लटक-लटक कर दिए थे। तब हम शायद जवान हो रहे थे और हमारा डर खत्म हो रहा था कि लटककर गिरने का खतरा भी रहता है। हम ऐसी बस में बैठना पसंद करते थे जिसमें 62 सवारियां बैठी और लगभग 30 खड़ी और 12-14 गेट से लेकर दांये-बांये तक लटकी रहती थीं।
अब क्या किया जाए नई जगह पर आ गए तो मन तो लगाना ही था। जिंदगी की गाड़ी तो चलानी ही थी। खुद भले ही अंदर ही अंदर घुलते रहो पर दूसरों को तो खुश रखना ही था। मैं भी दूसरों को खुश करता चला गया। नई जगह पर एक सुंदर सी कालोनी, सुंदर सी कालोनी में एक अच्छा सा घर और मजेदार पड़ोसियों के बीच दिल लग ही गया। पर कितने दिन।
इस दीवाली किसी ने बड़ा वाला बम फोड़ा होगा तो किसी ने सीटी वाले सतरंगी राकेट। कुछेक ने गोलमाल थ्री देखी होगी तो किसी ने एक्शन रिप्ले। कुछ लोगों ने ताश के पत्ते भी फेंटे होंगे। बस हम ही सबसे अलग थे। हम नई जगह जा रहे थे। यह वैसे खुशी की बात थी। हमने अपना घर खरीद लिया था। पूजा तो काफी दिन पहले ही हो चुकी थी पर हम लोगों ने अपनी आमद दीवाली पर ही वहां दर्ज कराई। अब एक और नई जगह। दीवाली की रात जब तक आफिस के कुछ साथी साथ रहे या हम अपने कुछ साथियों के साथ रहे तब तक ही सब कुछ ठीक था। उसके बाद तो मानो वीराना सा छा गया। ऐसा नहीं कि घर पर कोई है नहीं। ऐसा भी नहीं कि आसपास घर न हों। ऐसा भी नहीं कि कोई और बम-पटाके न छोड़ रहा हो। सब एकदम मस्त थे। खुश। पर यह खुशियां मेरे पास तक नहीं आ पा रही थी। तो क्या मैं एक और विस्थापन झेल रहा था। कभी हरसूद तो कभी टिहरी के लोगों का विस्थापन अखबारों में सुर्खियां बनते देखा था। कई बार उस दर्द के साथ खुद को जोड़ने की कोशिश की पर जुड़ नहीं पाया। बस यही लगता था कि क्या दिक्कत है इन लोगों को जो रोना-पीटना मचा रखा है। जबकि सरकार एक जगह के बदले दूसरी जगह दे रही है। अब महसूस हुआ वह दर्द बहुत गहरे से। अंदर तक भेद सा रहा है। काट रहा है। कचोट रहा। आत्म ग्लानि सी महसूस हो रही है। गहरा दर्द। यह जानते हुए भी कि यह कोई विस्थापन नहीं है।

आशीष दीक्षित

Friday, June 10, 2011

तलाश


जिंदगी छोटे-छोटे टुकड़ों से बुनी है। बड़े-बड़े कथानक कहां से तलाश करूं।
ये मेरी तलाश है उपेक्षित टुकड़ों को एक जगह इकट्ठा करने की। इन्हें आप
चाहें कहानी कहिए, कविता कहिए जो चाहें कहिए...आपके ऊपर छोड़ा है। ये
टुकड़े उठाने-जुटाने में मेरे साथ दोस्त पवन तिवारी और आशीष दीक्षित भी
रहेंगे।

कोने वाली उदास बेंच

अच्छा है/सच्चा है/बच्चा है - प्रेमरंजन अनिमेष

पहला दिन

सामने पार्क है जो घर के छज्जे से दिखता है। दिन भर सूने दिखने वाले
पार्क में शाम के वक्त वहां कुछ बच्चे नुमाया हुए हैं। कुछ के साथ उनकी
मम्मियां भी आई हैं। रंग बिरंगे कपड़ों में बच्चे। मेरे लिए यह बेमकसद
किसी ऐसी दुनिया को देखना है, जहां से कुछ हासिल नहीं होगा। उनको
उछलता-कूदता देख रहा हूं। बच्चों को इस तरह खेलते हुए बहुत समय बाद देख
रहा हूं। भूल गया हूं कि बच्चे खेलते भी हैं। सिर भारी है। इस भारीपन को उन बच्चों की चहचहाहट पिघला रही है। मैं उनके
और करीब गया हूं।

कोने की बेंच पर बैठे दो बच्चे एक दूसरे की आंखों में ताक रहे हैं।
नेहा कह रही है, ‘ये तितलियां इतनी जल्दी मर क्यों जाती हैं सूरज’
‘तितलियां खूबसूरत होती हैं, इसलिए मर जाती हैं’
‘मुझे भी एक तितली लाकर दो ना’
हाल की में हुई बारिश से पेड़ नहाए हुए हैं। बेलों का एक झुरमुट हैं। उस
झुरमुट पर कुछ तितलियां पानी की बूदों को छू रही हैं। सूरज उन में घुसकर
तितलियों को पकड़ने की कोशिश में है।

‘तुम भीग जाओगे सूरज’
‘मुझे भीगने दो नेहा, मैं भीगना चाहता हूं’
‘अब तुम्हे तितली नहीं मिलेगी’
‘तुम भी तो तितली जैसी हो’
‘क्या कहा....हट्ट’
‘मैं तुम्हे प्यार करता हूं.....।’
आवाज कुछ तेज थी। मम्मियों के कान खड़े हो गए।

दूसरा दिन

बच्चे खेल रहे हैं। कोने वाली बेंच आज उदास है। मैं दोनों बच्चों को तलाश रहा हूं।
बेंच के नीचे सफेद बुर्राक पंखों पर गुलाबी छीटों वाली तितली मर चुकी है।
मम्मियां जोर-जोर से हंस रही हैं।
प्यारे बच्चो, मैं तुम्हे नहीं जानता हूं फिर भी तुम्हे बहुत याद कर रहा हूं।
मैं उदास हूं।

मैं तुम्हे कहां तलाश करूं...नेहा।

पंकज मिश्र

अब मैं एक स्त्री हूं
वो पूनम का चांद नहीं था? जिससे चांद को तराशा गया है वह एक अनगढ़ सी
सुनहली मिट्टी का टुकड़ा भर था। अभी इसका कोई आकार नहीं था। फिर भी कशिश
इतनी कि जी करता था निहारता रहूं बस। एकटक, पलकें झपकाए बिना। चांदनी में
घुला हल्का अंधेरा हो, बस इतनी ही उजास हो उसमें कि मुखड़ा तुम्हारा
दिखता रहे। तुम मुझे न देख पाओ। मैं नहीं चाहता तुम मुझे देख सको। तुम बस
आसमान की ओर ताकती रहो..देखो किस तारे पर तुम्हारा नाम लिखा है? मगर तुम
ये नीचे की रेतीली धरती पर क्या तलाशती फिर रही हो? समझ नहीं आ रहा।...
मुझे ले चलो...। कांपते होठों से उसकी लरजती हुई आवाज निकली। अंधेरे पाख
में अभी पूरे पंद्रह रोज बाकी हैं, तुम ले चलो बस। जल्दी करो..। अभी
बादलों की ओट है। अभी मेरा अभ्युदय बाकी है। पूरणमासी आते-आते मैं जब
पूरा चांद हो जाऊंगी तब मेरी डोली उठेगी और तब तुम मुझे देख नहीं पाओगे।
ओझल हो जाऊंगी मैं तुम्हारी आंखों के आगे से। तब तुम अभिनय करोगे खुश
होने का। तुम रो नहीं सकते खुलकर,,,। तुम मुझे रोक भी न सकोगे। .क्यों?
क्योंकि तुम मेरे पिता नहीं हो। भाई होते तब भी विदा की घड़ी में तुम
आखिरी बार मेरी पलकों के नीचे अपनी अंगुलियां फिराकर मेरे आंसू सुखा सकते
थे।
तो तुम चलो, एक छोटी पगडंडी पकड़ते हैं। बस, इसे पकड़कर सीधी चलती रहना,
देखना पैर डगमग न हों, अगल-बगल गहरी खाईं है। गहरी खाई है??? तो क्या तुम
मुझे गिरने दोगे? तुम भी न बावरी हो। मैं खुद को संभालूंगा कि तुम्हें।
अब छोड़ो भी बस ले चलो। उसने जिद नहीं छोड़ी। चलती चली गई...उसके पैर के
तलुवे जमीन पर पूरे चिपक रहे थे। उसके एक कदम पड़ते तो फिर वह बादलों की
ओर देखती..लंबी सांस छोड़ती..। उसने मेरा कंधा पकड़कर झकझोरा।
सुनो...सूरज को रोक दो..। कह दो इतना उतावला न बने। क्यूं अब सूरज से
तुम्हारी क्या रुसवाई? है रुसवाई। ये आएगा तो अंधेरा छंट जाएगा और जब
अंधेरा छंट जाएगा तो तुम मुझे देख नहीं पाओगे। फिर मैं अपने देस चली
जाऊंगी। फिर तुम मुझे कहां ढूंढते भटकोगे? व्यर्थ होगा, तुम मुझसे फिर
कभी नहीं मिल सकोगे। फिर उसने मेरे कंधे पर अपना सिऱ टिकाया। आंखे
मूंदी., आंखों से खारे पानी की धारा बहाती सपनों में खो गई।
सुनो कोई गीत गुनगुनाओ...। कोई भ्रमर गीत। फिर वह गीत सुनती रही। ये गीत
मन मंदिर में गूंजते रहेंगे। तब लगेगा कोई दूर रहकर भी कितना करीब है।
अब घने बादल साथ छोड़ रहे हैं। रुई के फाहे की मानिंद,,अब तुम्हारा चेहरा
कुछ-कुछ दिखने लगा है। जब ये सबको दिखने लगेगा तब ये मुझे नहीं दिखेगा।
उसने आंखें भींचते हुए बादलों की ओर देखा। तुमने सूरज को रोका क्यों
नहीं। अब जब मेरा चेहरा सबको दिखेगा तो मुझे जाना ही होगा। तुम आना.. जब
शहनाई के शोरगुल के बीच लोग मेरा पीहर छु़ड़ा देंगे। तब मैं स्त्री जैसी
दिखूंगी। जिसकी कोख से मैं जन्मी, शगुन की दही-चीनी खिलाकर वह मुझे जाने
किसे सौंप देगी। मैं जानती हूं वह मेरी मां है, पर वह भी एक स्त्री है।
उसका कलेजा छलनी हो रहा होगा पर वो गीत गाएगी और आंचल में मुंह छिपाकर
रोएगी। बाबा...जिनने उंगली पकड़कर चलना सिखाया, उनके सिऱ का बोझ उतर गया।
कागज के कई बंडल जिन पर मुद्रा होने की पहचान छपी थी। बाबा ने उन अनजाने
लोगों को सौंप दिया था और कहा था बेटी बड़े दुलार से पली है..ये कुछ पैसे
हैं..बेटी के जन्मने का जुर्माना। कोई गलती हो गई होगी खातिरदारी में तो
माफी।

अब शहनाई का शोरगुल तारी था। ये क्या हो रहा है? ये कैसी महफिल सजी है?
लोग-बाग दावतों में मसरूफ हैं। कोई कुछ सुन क्यूं नहीं रहा। कहां है मेरी
नन्हीं परी? वो है... ना..ना नहीं। वो नहीं है। चलो अभी खुद देखेगी तो
भागती आएगी। अरे वो कौन है जिसे परंपराओं के बंधन में राजी खुशी बांधा जा
रहा है? यही है पूनम का चांद। उफ, ये किसने अजीब से रंग इस चांद के
मुखड़े पर फैला दिए हैं। कहां है वह धुला-धुला दमकता मुखड़ा। मैं गौर से
देखता रहा। कुछ रेखाएं उभर आई थीं. उस पूनम के चांद के ऊपर। ये रेखाएं
मेरी जानी हुई थीं। अक्स कुछ-कुछ धुंधलाया सा नजर आ रहा था। मैंने आवाज
दी। आवाज जाने कहां लोप हो गई? अब तुम नजरें क्यों नहीं उठा रही हो?
अंधेरा छंट गया। तुम्हारी लरजती आवाज कानों में गूंज रही है...सूरज को
रोको नहीं तो तुम मुझे नहीं देख पाओगे। उन लोगों को भी नहीं जो मुझे ले
जाएंगे। फिर तुम रो भी नहीं सकोगे खुलकर..क्यूं..क्योंकि न तुम मेरे पिता
हो न भाई। बहन और मां भी नहीं। तुम मेरे लिए पवित्र हो, पर दुनिया तुम्हे
अछूत और अपवित्र मानेगी। अब मैं एक स्त्री हूं और किसी स्त्री को छूना
पाप है।
पवन तिवारी

Saturday, March 19, 2011

हंसो मत बावरी, लोग सुन लेंगे


तुमने मुझे अपने रंग में रंगा, शुक्रिया। मेरे लिए होली के मायने रंगना है। कपड़ों से नहीं, मन से। मन न रंगाय, रंगाय जोगी कपड़ा। अब जो रंग चढ़ गया है, उसके ऊपर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ेगा।

रंगों के इस मौसम में तुम बहुत याद आती हो। याद होगा पिछली बार भी मैंने तुम्हे एक चिट्ठी लिखी थी। उसमें पलाश के फूलों का जिक्र था। उसमें तुम्हारे बावरेपन का जिक्र था। वह अमलताश भी था, जिसके सहारे मैं तुम्हे छू सका था। गेहूं के खेत सोने से दमकने लगे थे। उनके बीच एक पलाश खड़ा चहक रहा था। मैंने जाकर उसे हौले से छुआ था। मैंने कुछ फूल मांगे थे उस पेड़ से तुम्हारे लिए। और लेकर आया भी लेकिन दे न सका।

तभी से रोज मेरे सपनों में पलाश आता है। तुम खिलखिलाती हो। उस पेड़ के नीचे मैं तुम्हारे लिए फूल इकट्ठे कर रहा हूं। मैं तुम्हे रोकता हूं..न प्रिया, न, मैंने तुम्हारी हंसी को फूलों के रंगों में डुबोकर छिपाकर रखा है। तुम हंसती हो तो ये दुनियादारी जाग जाती है। हंसो मत बावरी, लोग सुन लेंगे। प्रेम छिपाना भी तो है। मैं चाहता हूं कि मैं तुम्हे मौन रहकर प्यार करूं।

बावरी, रेत था मैं। तुम खिलखिलाई एक दिन। तुम्हारे तलवों की गुदगुदाहट मैंने महसूस की। उस दिन मैंने अपनी यादों का उदास बक्सा खोला और उसमें लत्ते बन चुके कुछ टुकड़ों को सुई धागे से सिया। ये मेरे प्यार का बिछौना था। मुझ पर चलते हुए पैर जलने लगते थे तुम्हारे। मैंने तुमसे कहा था, ये राह कठिन है। खुसरो भी कह गए हैं। तुमने कह दिया था- मुझे डूबना है इसी दरिया में और पार उतरना है। पगली, हम पार कहां उतरे हैं और डूबते जा रहे हैं...और।


बावरी

पलाश यूं ही फूलेंगे
चिड़िया यूं ही चहचहाएंगी

जब भी ऋतु राग फूटेगा
तो जिद करोगी तुम कि
मुझे तुम्हारे साथ झूला झूलना है
मुझे आम केपत्ते की फिरकी बनाकर दो

फिर करोगी जिद कि
फूल से अलग कर देना कांटे
मुझे सोना है तुम्हारे साथ

कैसी बावरी लड़की हो तुम कि
हंसोगी तो खूब हंसोगी
मैं सहम जाऊंगा
लोग पूछेंगे तुमसे हंसने की वजह
फिर तुम उदास हो जाओगी
मैं ले आऊंगा तुम्हारे लिए
कुछ रंग चटख
कुछ सपने बंजारे
एक खुशबू नर्म चिड़िया के बच्चे जैसी

मैं चाहता हूं प्रिया कि
तुम प्यार छिपाना भी सीखो
खुशियां छिपाना भी सीखो
और हंसो तो सिर्फ मेरे सीने में...।

रंग और प्रेम

आज रंग है
तुम फिर पूछोगी मुझसे
कि क्या होता है प्रेम
अब मैं क्या बताऊं


उस रंग का नाम

लाल, नीले, पीले
जाने कितने रंगों का जिक्र छिड़ा
लेकिन इनमें वह रंग नहीं मिला
जिसमें मैं रंगा

तुम्हे मालूम हैं क्या
उस रंग का नाम

रोहित की तस्वीरें






फोटो जर्नलिस्ट रोहित उमराव ने यह तस्वीरें अपने अखबारी समय से कुछ वक्त चुराकर हमें भेजी हैं। सौंदर्य के पारखी उमराव के पास चीजों को देखने समझने का दुस्साहसी नजरिया भी है। रोहित की तस्वीरों के मार्फत होली की शुभकामनाएं

फागुन की शाम


धर्मवीर भारती

घाट के रस्ते
उस बँसवट से
इक पीली-सी चिड़िया
उसका कुछ अच्छा-सा नाम है !
मुझे पुकारे !
ताना मारे,
भर आएँ, आँखड़ियाँ !
उन्मन, ये फागुन की शाम है !
घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं
झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं
तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी
यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी


आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी !
अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है !


इस सीढ़ी पर, यहीं जहाँ पर लगी हुई है काई
फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाँहों में कितना शरमायी !
यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन !
यहाँ न आऊँगी अब, जाने क्या करने लगता मन !


लेकिन तब तो कभी न हममें तुममें पल-भर बनती !
तुम कहते थे जिसे छाँह है, मैं कहती थी घाम है !
अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोले
कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले
ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा
मेरे सँग-सँग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा


पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से
कहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है !


ये फागुन की शाम है !

इहां कुसल सब भांति सुहाई


होली के मौके पर यह चिट्ठी वाया ई मेल मुझे मिली। आप भी देखिए...

डाक्साब,
जै राम जी की, होली मुबारक हो

इहां कुसल सब भांति सुहाई। उहां कुसल राखै रघुराई।।
आगे राम की इच्छा। आगे समाचार यह है कि अबकी होली परदेस में ही बीत रही है। अपने अवध इस बार भी नहीं जा पा रहा हूं। अब जबकि इस होली हम आपको पत्र लिख रहे हैं, तब हमारी चिंताएं भी बदल चुकी हैं। इस बार अम्मा के हाथों सरसों का उबटन (बुकवा) नहीं लग पाया। ‘वायफी’ ने शहनाज का मसाज पैक लगा दिया इस बार। जापान त्रासदी हमारी ग्लोबल चिंता है तो अम्मा की आंख का मोतियाबिंद का आपरेशन हमारी ‘इंडीविजुअल फिकर’। अबकी हमें इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि पड़ोसी गांव की होलिका हमारे गांव से ज्यादा हहाहूट है। हम तो इस बात पर अफसोस कर रहे हैं कि हमारी हाउसिंग सोसायटी की छोटी-सी होलिका कितने टन कार्बन का उत्सर्जन कर रही है। अबकी हमने अपने बाल सखाओं की भी सुधि नहीं ली। ये अलग बात है कि आधा दर्जन अखबारों के संपादकों को एसएमएस भेजे। अपनी भौजी के हाथ की बनी गुझिया हमें ‘फैटी’ लग रही है। बॉस की बीवी के फ्रिज में रक्खी फैट फ्री गुझिया हमें भा गई।
सरसों के खेतों और आम के बौर से छनकर आती हवा हमें मदहोश नहीं कर रही है। हम तो स्कॉच गटककर टल्ली हैं। न रंग का नशा, न भंग की खुमारी। बुरा न मानना, आप भी सेलिब्रेट करना।

ये न सोचना कि हम ऐसे हो गए हैं।
बस हम थोड़ा प्रोफेशनल हो गए हैं।
आपको पता ही है ये टुच्ची जरूरतों के बारे में
और हां, कोई हमारे गांव-गिराव का मिल जाए तो उसे ये चिट्ठी मत दिखाना, क्योंकि हमारी गांव में बड़ी ‘इज्जत’ है। और वैसे भी हम हैं नहीं ऐसे। मन की बात बताएं तो हमारे दिल में भी एक होलिका फुंक रही है रह-रहकर...आपकी कसम।
थोड़ा लिखा ज्यादा समझना, कलम की रोशनाई फीकी पड़ रही है।
एक बार बोलो..जोगी रा सा रा रा रा रा रा .......

आपका
पवन