Tuesday, September 22, 2009


मेरे

हमराही भानु की खींची हुयी यह तस्वीर गहरायी से महसूस कीजिए /

Monday, September 14, 2009

तुम बड़ी रंगरेज हो कनुप्रिया

बीते दिनों की झिलमिल यादों से बावस्ता हूं। अकस्मात एक सिहरन उठती है, यह क्या है। हंस की मनुहार 'अब हेमंत अंत निअराया, लौट न आ तू गगन बिहारी। ’ जमीन टेरती है। पलाश खिले हैं, सेंमल खिले हैं। आम बौराए हैं। गेहूं हरिआये हैं। एक रंग उतर रहा है...एक रंग चढ़ रहा है। मखमली-सा, जिसे छुओ तो पोर-पोर सनक जाए और इसमें डुबकी लगा लो तो खनक दूर तलक जाए।
वे कैसे दिन थे।
लंबी सांस खींचता हूं तो अब भी वह सोंधापन गमकता चला आता है।
मैं खुद को 20 साल पीछे ढकेलना चाहता हूं।
मुझे नहीं पता मैं क्यों ऐसा करना चाहता हूं। कोई मुझे टेर रहा है। कभी ऐसा हो कि नदी बहती हुई सहसा पीछे मुड़ जाए। या उल्टी दिशा में बहने लगे और वही पहुंचे, जहां से चली थी। फिर से बहने की शुरूआत करे। ये बहना वैसा न हो, पहले जैसा। कुछ न रीते।
जीवन भी ऐसा हो जो क्या कहने-रिवर्स।
हो सकता है- मैं उनको प्यार कर सकूं, जिनको किनारे पर छोड़ आए। हो सकता है- वे आंखें अब भी इंतजार में हों और हम निर्मोही यहां भटक रहे हैं। हां, हम निर्मोही है, बहुत जल्दी भूल जाते हैं।
प्रिया प्रतीक्षारत है-कनु तुम कहां हो।
धर्मवीर भारती की 'कनुप्रिया’ मेरे हाथों में है।
मन के अरसे से बंद दरवाजों की सांकल कोई गहरे से खटका रहा है। मैं सुन रहा हूं....मैं सुन रहा हूं तुम्हें। तुम्हारे हाथों की छुअन से सांकल देर तक नाचती रहेगी। मन में मैं भी नाच रहा हूं।

बड़ी बावरी हो तुम भी
चलो, मैं खोल ही देता हूं मन के दरवाजे। उदासी के इस घने अंधेरे में कुछ पल तुम्हारे साथ महकते हुए बीतेंगे। मन फगुनाया है। कोई मुझसे घड़ी, घंटे, पल-छिन...सब छीन ले। किसी ऐसे अंधेरे कमरे में डाल दे, जहां एक खिड़की पूरब की ओर खुलती हो। मेरे नथुनों में हवा समाएगी और मैं जान जाऊंगा कि बसंत आ गया है और फागुन आने वाला है। मौसम दिलों में रहते हैं...कलेंडर...इंटरनेट या डायरी में नहीं। रंग भी दिल में बसते हैं...मन न रंगाय...रंगाय जोगी कपड़ा। ये जो पुरबा बयार चली है...इसमें तुम्हार देहराग मिला हुआ है। मैं उसी रंग में रंग जाऊंगा..बेसुध हो जाऊंगा। ये चंपई उजास चमकी है..तुम्हारे जैसी।
तुम्हारी आवाज एक गहरा आलाप है। मुझे मदोन्मत्त कर रही है। मैं इस मद में पागल हो जाना चाहता हूं। फागुन का नाम पागल होता तो और उसे जीने वाले सब पगले।
जोगी री सा रा रा रा।
तुम बड़ी रंगरेज हो कनुप्रिया। ऐसा रंग दिया कि जनम भर न उतरे।
और मैं क्या कहूं...।
'इश्किया ’ में गुलजार साब की ये लाइन कह दूं तो चलेगा-
दिल तो बच्चा है जी...।