Saturday, August 21, 2010

जंगली खरगोश जैसा प्यार

मैं किसे अपना हाजिर नाजिर मानूं
ईश्वर को

मैं आपको हाजिर नाजिर मानकर
कहता हूं कि
मैंने आपसे प्यार किया है
यह मेरा गुनाह है

इस वक्त नहीं है
मेरे पास कोई गवाह
मेरे पक्ष में
सभी ने सिल लिए हैं मुंह

मैं गीता की कसम खाकर
कहता हूं कि
जो कुछ कहूंगा
वह तुम्हारे प्यार की तरह
सच्चा होगा
एकदम खरा

और गवाहों की बात करूं तो
किसने देखा है
मुझे प्यार करते हुए
यानि अपराध करते हुए

इस अंधेरे समय में
कौन कहेगा कि
यह प्यार सच्चा है
इसे बखश दो मी लॉड

मेरे प्यार के पक्ष में
कोई गवाही नहीं आ रही है
जिसे बोलना था
उसे होठों पर हथकडियां हैं

खामोश अदालत जारी है

भद्रजनों
मुझे प्यार के अपराध के लिए
क्षमा करो
क्षमा करो
विप्र
मैं जोडने में गलती से
तोड बैठा हूं कुछ
जो मुझे नहीं मालूम

और न्याय की कुर्सी पर बैठे
राजा जी
हमेशा की तरह
मेरे प्यार को भी दे दो सजा-ए-मौत
लेकिन मेरा प्यार
जिंदा रहेगा
ओस की बूंदों में
जमुन जल में
शाखों में, बल्लरियों में
अमलताश में
पहाड की किसी हरियाली चोटी पर
सुबह उगेगा दूब-सा भीगा
सांझ को गायों के साथ लौट आएगा
दुबककर
धूल उडेगी
और समा जाएगा
मेरे अंतर के कोने-कोने में

प्यार
किसी जंगली खरगोश की तरह
मारेगा उछालें
नर्म-नर्म
नदी, पर्वत, खेत, खलिहान पार करता हुआ
आकर दुबक जाएगा
मेरी गोद में
गर्म-गर्म
प्यार मरेगा कहां।

- पंकज

Sunday, August 8, 2010

नदी

सुधीर विद्यार्थी की यह कविताएं कथादेश में छपी थी, अचानक नजर पडी तो इन्हें ब्लाग पर देने का मन हुआ। इन कविताओं को मरती हुई नदियों का बयान कहना ठीक होगा। अपनी राय दीजिएगा। -पंकज

जानवर ज़रूरत भर पानी
पी रहे हैं नदी से
चिड़िया चोंच भर पीती हैं
मछलियाँ और मगरमच्छ
गलफड़े भर कर
वृक्ष सोखते हैं
जड़ भर पानी
सूरज अपनी गर्मी भर पीकर
लौटा देता है बादलों को
पर मनुष्य को कितना पानी चाहिए
यह नदी भी नहीं जानती

दो

जंगल में रहकर नदी
जंगल नहीं हो जाती
जंगल के जंगलीपन के बावजूद
वह नहीं छोड़ देती
अपना नदी होना

तीन

नदी को पंडित जानते हैं
जानते हैं तिलकधारी पंडे
कथावाचक और हरबोले
तंबुओं के खूँटे गाड़ते मजदूर
प्रसाद की दुकानों पर बैठे
मैले-कुचैले हलवाई
लहरों को पतवार से चीरने वाले
मल्लाहों के काले चौड़े मज़बूत कंधे
नदी इन सबके लिए
कोई पवित्र शब्द नहीं
वह थाली में सजी
भूख भर रोटी है

चार

प्लास्टिक के टब में नदी भर कर
काग़ज़ की नाव उतार रहे हैं बच्चे
नाव, नदी और बच्चे
सभी खुश हैं
बच्चों के साथ रहकर
लौट आता है नदी का बचपन

पाँच

पाल लगी नावें
नदी की लहरों पर
हवा के रुख को देखकर
तैरती हैं
हवा बहा ले जाती है
अपने साथ नावों का काफ़िला
हवा के साथ-साथ
कभी नहीं चलती नदी

छह

कविता से गायब हो गई है नदी
छूट गई है नदी कविता से
एक संत कवि ने नदी के किनारे बैठकर
लिखी थीं कविताएँ
एक प्रयोगवादी कवि ने
नदी में खड़े होकर
पढ़ी थीं कविताएँ
फिर भी रूठ क्यों गई है नदी
कविता से

सात

नदी में दिखाई पड़ रहा है
हमारा चेहरा
नदी का बयान
हमारे समय पर
एक क्रूर टिप्पणी है

आठ

नदी आत्मकथा लिखना चाहती है
वह दर्ज़ करना चाहती है
अपने सारे सुख-दुख
जन्म से अब तक के
उल्लास, मिलन, बिछोह
विद्रोह और समर्पण
वह अपना अधूरापन
उगलना चाहती है
कहना चाहती है
कि उसका नदी होना
सबसे बड़ा अपराध है

नौ

नदी का संकट सिर्फ़ नदी का नहीं है
हमारे समय की सबसे भयानक खबर है यह
कि गाँव उजड़ रहे हैं
जंगल होते जा रहे हैं शहर
नदी को डंस रहे हैं
तरक्की के सबसे ज़हरीले साँप
नदी के खिलाफ़
हमारी पीढ़ी का
सबसे घिनौना षड़यंत्र है यह
नदी तुम बगावत क्यों नहीं करती
जीने के हक के लिए
दुनिया की सारी नदियों को एक हो जाना चाहिए