Saturday, February 27, 2010

बेटियां बेचैन हैं



बस चलनी शुरू हुई कि मेरी बेटी फफककर रो पड़ी। यह महानगर का सबसे ज्यादा भीड़भाड़ वाला बस स्टैंड है, जहां से मेरे गांव को जाने वाली बसें मिलती हैं। इन्हीं में से एक बस में मेरे पिताजी, पंद्रह दिन शहर में रहकर इलाज कराने केबाद गांव जा रहे थे। बस धीरे-धीरे आगे बढ़ी और ओझल होने लगी। मैं बेटी को चुप कराने में लगा था।
'कुछ चाहिए? ’ उसने रोते-रोते सिर हिला दिया। 'नहीं। ’
'फिर क्यों रो रहे हो बेटा। ’
'बाबा चले गए अब मुझे अच्छा नहीं लगेगा। ’
मेरी आंखें भर आईं। कितनी तन्हा है मेरी बेटी। मैं उसकी हिचकियां सुन रहा था। मैंने उसे सीने से लगा लिया, 'मैं तो हूं न! तुम मेरे साथ खेलना। ’
घर आया तो पत्नी ने बताया कि पिता जी इसके लिए घोड़ा बन जाते थे। रात को चांद तारों की कहानियां सुनाते। गाय-भैस-बछड़े, ताल तलैया से लेकर गन्ने और उससे गुड़ बनने जैसी बातें उन्होंने ही बेटी को बताईं। बाबा की बातें बेटी का 'कौतुहल लोक’ थीं। बाबा कुछ सुनाते तो वह मौन हो जाती। बड़े ध्यान से सुनती और सवाल करती, 'बाबा, मूली का पेड़ कैसा होता है?’
बाबा केसाथ खेलती तो अक्कड़-बक्कड़, गुट्टा-गुट्टी जैसे जाने कितने खेल जिंदा होते चले जाते। पिता जी मेरी बेटी का 'प्ले स्कूल ’ थे। शहर की तंग गली में मेरे उस छोटे से किराए केमकान में बेटी का 'पार्क’ थे, जहां वह जब चाहती, सैर कर आती। बेटी ने कभी गांव नहीं देखा। मैंने उसे दिखाने की कोशिश भी नहीं की। उसने कद्दू-लौकी, तोरई की छप्पर पर पसरी बेलें नहीं देखीं। 'सत्तू’ मेरे बचपन का 'फास्ट फूड’ था, वह नहीं जानती है। अम्मा चना, मटर, गेहूं, मकई पसेरी-पसेरी भुना कर रख देतीं थी। बस्ते में भरकर स्कूल ले जाते थे। बेटी चाउमिन लेकर स्कूल जाती है। बोलचाल की भाषा में जिसे जंक फूड कहते हैं। बताते हैं- यह सब खाने से बच्चे जल्दी जवान होने लगते हैं।
पिता को नहीं मालूम इस जंक फूड के खतरे, लेकिन बेटी को खाते देखते तो टोक देते, 'का बिटिया, जा कोई खान बारी चीज है। ’ एक दिन पिताजी कहीं से घूमकर बड़ी देर बाद लौटे। साथ में भुने हुए चने, मकई केफूले और खोए की बर्फी लेकर आए। बेटी ने सब चीजें बड़े मजे लेकर खाईं। पिता को खोए की मिठाई बहुत पसंद है। मैंने बचपन में उनकी लाई खोए की बर्फी खूब खाई है, जिस पर चांदी का चमचमाता बरक चिपका होता था। यहां महानगर में उन्होंने पता नहीं कितनी दुकानें बर्फी केलिए छानीं, तब कहीं से लेकर आए। गांव गए तो कहकर गए कि आलुओं की कोई कमी नहीं है। बड़ी अच्छी फसल हुई है इस बार। तुम्हारी दादी से कहकर पसेरी भर चिप्स बनवा दूंगा। ये चमचमा वाले इतने महंगे चिप्स मत खाया करो। सत्तू लेकर भी आएंगे।
अपने बचपन को याद करता हूं तो लगता है कि मेरे खाने का मेन्यू कब का खत्म हो गया। बेटी को बताऊं तो कहेगी कि ये भी कोई खाने वाली चीजें है पापा!
उस दिन मैंने पहली बार 'बेटियों’ के बारे में सोचा। मोहल्ले भर की बेटियों केबारे में...। घरों से 'बाबा’ खत्म होते जा रहे थे। बाबा गांव में पेंशन के सहारे जी रहे हैं। पेंशन से बचाकर बेटियों के लिए कुछ पैसे भेज देते हैं ताकि वे साइकिल खरीद लें। वीडियोगेम खरीद लें। बंद रिक्शे में स्कूल जाएं और सुरक्षित घर लौट आएं। जब चाहें पिज्जा-बर्गर खाएं।
बेटियां बेचैन हैं- बाबा, क्या तुम मुझे उंगली पकड़ाकर स्कूल छोडऩे नहीं जाओगे।
और अपने पापा की सुनो- जब तुम स्कूल जाती हो, उससे कुछ समय पहले रात के अंतिम पहर में मैं कारखाने से निचुड़कर लौटता हूं। तुम्हारा सोता हुआ चेहरा देखता हूं। तुम्हारे चेहरे पर कुछ 'ऊब ’ दिखती है। मैं बिस्तर पर गिर जाता हूं-अधमरा-सा। सुबह इन्हीं मरे हुए क्षणों में मुझे तुम्हारी 'बाय ’ सुनाई देती है। देवव्रत जोशी की कविता कौंधती है- 'बाप से आंख नहीं मिला पाया आजीवन/जबकि सहज थे वे/हवा-पानी-मिट्टी और आकाश की तरह/तरल, पारदर्शी और अहेतुक प्रेमी/उसी स्वभाव की पोती से/आंखें चुराता हूं/फिलवक्त पिता की कुर्सी पर बैठी वह/आज वह मुझे बेतरह मुग्ध और शर्मसार कर रही है। ’

(उदयप्रकाश की कहानी 'तिरिछ ’ पढ़ते हुए स्मृतिविहीन हो चुकेपिता याद आए। यह भी याद आया कि खुद मैं भी स्मृतिविहीन हो गया हूं। एक दिन अपनी अखबारनवीसी की कतरनें टटोलते हुए यह कतरन हाथ लग गई। 10 जनवरी, 2008 को जनसत्ता के 'दुनिया मेरे आगे ’ कॉलम में छपी थी।)

1 comment:

Sumit pandey said...

ye altimate hai...
ab dada nani ki kahaniyo ki jagah...
betiya cortoon network dekhkar man bah lati hai...
ye samaj bechain hai
sab kuch badal rha hai
usme dada nani ke kisse bhi... ab dhundhale pad jayenge...
bhut khubsurat hai
thank you...