Saturday, June 11, 2011


बसंत से एक दिन पहले सुरमई सांझ के वक्त लिखी गई यह पंक्तियां एक कोमल ह्दय की भावनाएं हैं। बहुत समय बाद चिट्ठियां याद आईं। इन्हें सहेजना जरूरी लग रहा है, इसलिए ब्लाग पर दे रहा हूं.।

यह महज एक फूल नहीं है....
पिहू,
आज एक फूल भेज रहा हूं। यूं तो आपको तमाम फूल मिलते होंगे मगर यह फूल उन फूलों से काफी अलग है। आप पूछेंगी अलग क्यों। आखिर सवाल पूछना तो आपकी फितरत रही है और तुरंत ही उसका जवाब देना हमारी आदत। तो जनाब यह फूल अलग है इस लिए क्यों कि यह मेरे प्यार से पगा हुआ है। यह कोई बजारू फूल नहीं है जो दस रुपये के मुड़े-तुड़े नोट के बदले किसी दुकानदार से खरीदा गया हो। यह नितांत निजी फूल है। मेरा अपना फूल। छह महीने पहले मैंने तुम्हें पहली बार देखा था। बाजार जा रही थी तुम। रिक्शे पर बैठी। हाथ से दुपट्टे को संभालते हुए। सामान से भरे थैले को पकड़े हुए। मैं तो थम सा गया था उस एक ही पल में। पता न था कि यह पल कभी इस तरह से लौट कर आने वाला है पर वो आया। वह भी अपने सुनहरे रुप में। नई जगह र्कोंचग पढ़ने पहुंचा तो तुम भी नजर आईं। मुझे खुद अपनी किस्मत से रश्क हो रहा था। मेरी किस्मत इतनी अच्छी है इसका तो कभी अहसास ही न था। तुम मिलीं, बातें हुईं, मुलाकातें बढ़ीं और मैं तुम्हारा होता चला गया। कई बार लगा कि शायद तुम भी मेरी हो रही हो। लगा कि शायद मैं और तुम ‘हम’ हो रहे हैं, पर कभी पूछ नहीं पाया। तुम्हे फूलों का शौक था। सोचा कि एक फूल मैं भी तुम्हें दूं पर दिया नहीं। हां एक पौधा लाकर जरुर अपने छोटे से घर के नन्हें से आंगन में लगा लिया। गुलाब का पौधा। पहली बार लगाया था कोई पौधा। स्कूल से लेकर कालेज तक वृक्षारोपड़ पर खूब भाषण दिए। निबंध भी लिखे पर पौधा लगाया कभी नहीं। इस बार लगाया। पहली बार। तुम्हारे लिए। अल सुबह उठते ही उसमें पानी डालता। थोड़ी सी खाद भी लेकर आया था। घर से निकलते और घुसते हर बार मैं उसे जरूर देखता। आखिर एक दिन उस पर फूल खिल ही गया। लाल गुलाब। सुर्ख लाल बिल्कुल उसी दुपट्टे के रंग का जो तुम उस दिन रिक्शे पर ओढ़कर निकली थीं। हमारी पहली मुलाकात का रंग। यह वही फूल है पिहू। मेरा फूल जो इस धरती पर केवल इस लिए आया कि मैं तुम्हें उसे देकर कह सकूं कि यह महज एक फूल नहीं है.।
आशीष दीक्षित

मैं जानता हूं यह विस्थापन नहीं
कम से कम यह विस्थापन तो नहीं ही है, पर दर्द इसका भी किसी विस्थापन से कम नहीं है। आप एक गंवई जगह में लगातार बिना किसी रोक-टोक के बिना किसी अनमनेपन के 23-24 साल रहते हैं और एक दिन आपको वहां से नई जगह के लिए चलना पड़ता है। नई जगह बहुत अच्छी है, बहुत ही अच्छी। यहां मन लगते किसी की भी देर नहीं लगती। मन लग जाता है पर फिर भी एक शून्य तो है ही। यहां आने के बाद हम तमाम नए दोस्त बनाते हैं पर वे दोस्त कहां जिनके साथ लकड़ी की काठी से लेकर साइकिल की कैंची तक और फिर दो पहिया फर्राटा से लेकर एशिया के सबसे बड़े उपक्रम भारतीय रेल पर सफर किया था। जिनके घर घुसकर हम हल्ला मचाते थे। कई बार आस-पास खेलते हुए हम उनके घर के बिल्कुल अंदर की तरफ बनी कोठरी में घुस जाते थे। हैं कोई जो हमें ढूंढ़ पाए। नहीं हैं न वे दोस्त पर यह जगह अच्छी है। बहुत अच्छी है यह जगह। यहां एक से बढ़कर एक पार्क हैं। पार्क में तमाम पेड़ हैं। झूलों की तो भरमार है। बस वो पाकड़ यहां नहीं दिखी जिस पर हमने हर बार तीज पर झूला डाला था। उस झूले पर खुद तो कभी नहीं झूले पर हमारी बहिनें और हमारे दोस्तों की बहिनें तो खूब झूलीं। वो वाला आम का पेड़ भी नहीं मिला जिसका एक भी आम ऐसा नहीं था जो हमारी लग्गी की जद में न आता। मिला तो वो अमरुद भी नहीं जिस पर कभी अमरूद पक ही नहीं पाए। हमने लगते ही उन्हें तोड़ने की आदत तो जो डाल ली थी। खैर कुछ भी हो यह जगह है तो बहुत ही अच्छी। कहीं भी जाना है सवारी हाजिर। आराम से बैठकर चले जाओ। पर हमें यह आराम भाता ही कहां। हमें तो विक्रम पर लटककर जाने में ही मजा आता है। विक्रम के गेट पर क्लीनर के साथ मैं लटक जाता था तो पीछे मेरे तीन दोस्त। हाईस्कूल के पेपर हमने ऐसे ही लटक-लटक कर दिए थे। तब हम शायद जवान हो रहे थे और हमारा डर खत्म हो रहा था कि लटककर गिरने का खतरा भी रहता है। हम ऐसी बस में बैठना पसंद करते थे जिसमें 62 सवारियां बैठी और लगभग 30 खड़ी और 12-14 गेट से लेकर दांये-बांये तक लटकी रहती थीं।
अब क्या किया जाए नई जगह पर आ गए तो मन तो लगाना ही था। जिंदगी की गाड़ी तो चलानी ही थी। खुद भले ही अंदर ही अंदर घुलते रहो पर दूसरों को तो खुश रखना ही था। मैं भी दूसरों को खुश करता चला गया। नई जगह पर एक सुंदर सी कालोनी, सुंदर सी कालोनी में एक अच्छा सा घर और मजेदार पड़ोसियों के बीच दिल लग ही गया। पर कितने दिन।
इस दीवाली किसी ने बड़ा वाला बम फोड़ा होगा तो किसी ने सीटी वाले सतरंगी राकेट। कुछेक ने गोलमाल थ्री देखी होगी तो किसी ने एक्शन रिप्ले। कुछ लोगों ने ताश के पत्ते भी फेंटे होंगे। बस हम ही सबसे अलग थे। हम नई जगह जा रहे थे। यह वैसे खुशी की बात थी। हमने अपना घर खरीद लिया था। पूजा तो काफी दिन पहले ही हो चुकी थी पर हम लोगों ने अपनी आमद दीवाली पर ही वहां दर्ज कराई। अब एक और नई जगह। दीवाली की रात जब तक आफिस के कुछ साथी साथ रहे या हम अपने कुछ साथियों के साथ रहे तब तक ही सब कुछ ठीक था। उसके बाद तो मानो वीराना सा छा गया। ऐसा नहीं कि घर पर कोई है नहीं। ऐसा भी नहीं कि आसपास घर न हों। ऐसा भी नहीं कि कोई और बम-पटाके न छोड़ रहा हो। सब एकदम मस्त थे। खुश। पर यह खुशियां मेरे पास तक नहीं आ पा रही थी। तो क्या मैं एक और विस्थापन झेल रहा था। कभी हरसूद तो कभी टिहरी के लोगों का विस्थापन अखबारों में सुर्खियां बनते देखा था। कई बार उस दर्द के साथ खुद को जोड़ने की कोशिश की पर जुड़ नहीं पाया। बस यही लगता था कि क्या दिक्कत है इन लोगों को जो रोना-पीटना मचा रखा है। जबकि सरकार एक जगह के बदले दूसरी जगह दे रही है। अब महसूस हुआ वह दर्द बहुत गहरे से। अंदर तक भेद सा रहा है। काट रहा है। कचोट रहा। आत्म ग्लानि सी महसूस हो रही है। गहरा दर्द। यह जानते हुए भी कि यह कोई विस्थापन नहीं है।

आशीष दीक्षित

2 comments:

लल्लनटाप said...

shukra hai apne blog likhna shuru kar diya..

अनुराग शुक्ला / Anurag Shukla said...

शानदार अभिव्यक्ति। बिल्कुल लाल सुर्ख गुलाब की तरह जिसे देखकर ही मुहब्बतों वाला मौसम मन पर तारी हो जाता है।