
जिंदगी छोटे-छोटे टुकड़ों से बुनी है। बड़े-बड़े कथानक कहां से तलाश करूं।
ये मेरी तलाश है उपेक्षित टुकड़ों को एक जगह इकट्ठा करने की। इन्हें आप
चाहें कहानी कहिए, कविता कहिए जो चाहें कहिए...आपके ऊपर छोड़ा है। ये
टुकड़े उठाने-जुटाने में मेरे साथ दोस्त
पवन तिवारी और
आशीष दीक्षित भी
रहेंगे।
कोने वाली उदास बेंचअच्छा है/सच्चा है/बच्चा है - प्रेमरंजन अनिमेष
पहला दिनसामने पार्क है जो घर के छज्जे से दिखता है। दिन भर सूने दिखने वाले
पार्क में शाम के वक्त वहां कुछ बच्चे नुमाया हुए हैं। कुछ के साथ उनकी
मम्मियां भी आई हैं। रंग बिरंगे कपड़ों में बच्चे। मेरे लिए यह बेमकसद
किसी ऐसी दुनिया को देखना है, जहां से कुछ हासिल नहीं होगा। उनको
उछलता-कूदता देख रहा हूं। बच्चों को इस तरह खेलते हुए बहुत समय बाद देख
रहा हूं। भूल गया हूं कि बच्चे खेलते भी हैं। सिर भारी है। इस भारीपन को उन बच्चों की चहचहाहट पिघला रही है। मैं उनके
और करीब गया हूं।
कोने की बेंच पर बैठे दो बच्चे एक दूसरे की आंखों में ताक रहे हैं।
नेहा कह रही है, ‘ये तितलियां इतनी जल्दी मर क्यों जाती हैं सूरज’
‘तितलियां खूबसूरत होती हैं, इसलिए मर जाती हैं’
‘मुझे भी एक तितली लाकर दो ना’
हाल की में हुई बारिश से पेड़ नहाए हुए हैं। बेलों का एक झुरमुट हैं। उस
झुरमुट पर कुछ तितलियां पानी की बूदों को छू रही हैं। सूरज उन में घुसकर
तितलियों को पकड़ने की कोशिश में है।
‘तुम भीग जाओगे सूरज’
‘मुझे भीगने दो नेहा, मैं भीगना चाहता हूं’
‘अब तुम्हे तितली नहीं मिलेगी’
‘तुम भी तो तितली जैसी हो’
‘क्या कहा....हट्ट’
‘मैं तुम्हे प्यार करता हूं.....।’
आवाज कुछ तेज थी। मम्मियों के कान खड़े हो गए।
दूसरा दिनबच्चे खेल रहे हैं। कोने वाली बेंच आज उदास है। मैं दोनों बच्चों को तलाश रहा हूं।
बेंच के नीचे सफेद बुर्राक पंखों पर गुलाबी छीटों वाली तितली मर चुकी है।
मम्मियां जोर-जोर से हंस रही हैं।
प्यारे बच्चो, मैं तुम्हे नहीं जानता हूं फिर भी तुम्हे बहुत याद कर रहा हूं।
मैं उदास हूं।
मैं तुम्हे कहां तलाश करूं...नेहा।
पंकज मिश्रअब मैं एक स्त्री हूंवो पूनम का चांद नहीं था? जिससे चांद को तराशा गया है वह एक अनगढ़ सी
सुनहली मिट्टी का टुकड़ा भर था। अभी इसका कोई आकार नहीं था। फिर भी कशिश
इतनी कि जी करता था निहारता रहूं बस। एकटक, पलकें झपकाए बिना। चांदनी में
घुला हल्का अंधेरा हो, बस इतनी ही उजास हो उसमें कि मुखड़ा तुम्हारा
दिखता रहे। तुम मुझे न देख पाओ। मैं नहीं चाहता तुम मुझे देख सको। तुम बस
आसमान की ओर ताकती रहो..देखो किस तारे पर तुम्हारा नाम लिखा है? मगर तुम
ये नीचे की रेतीली धरती पर क्या तलाशती फिर रही हो? समझ नहीं आ रहा।...
मुझे ले चलो...। कांपते होठों से उसकी लरजती हुई आवाज निकली। अंधेरे पाख
में अभी पूरे पंद्रह रोज बाकी हैं, तुम ले चलो बस। जल्दी करो..। अभी
बादलों की ओट है। अभी मेरा अभ्युदय बाकी है। पूरणमासी आते-आते मैं जब
पूरा चांद हो जाऊंगी तब मेरी डोली उठेगी और तब तुम मुझे देख नहीं पाओगे।
ओझल हो जाऊंगी मैं तुम्हारी आंखों के आगे से। तब तुम अभिनय करोगे खुश
होने का। तुम रो नहीं सकते खुलकर,,,। तुम मुझे रोक भी न सकोगे। .क्यों?
क्योंकि तुम मेरे पिता नहीं हो। भाई होते तब भी विदा की घड़ी में तुम
आखिरी बार मेरी पलकों के नीचे अपनी अंगुलियां फिराकर मेरे आंसू सुखा सकते
थे।
तो तुम चलो, एक छोटी पगडंडी पकड़ते हैं। बस, इसे पकड़कर सीधी चलती रहना,
देखना पैर डगमग न हों, अगल-बगल गहरी खाईं है। गहरी खाई है??? तो क्या तुम
मुझे गिरने दोगे? तुम भी न बावरी हो। मैं खुद को संभालूंगा कि तुम्हें।
अब छोड़ो भी बस ले चलो। उसने जिद नहीं छोड़ी। चलती चली गई...उसके पैर के
तलुवे जमीन पर पूरे चिपक रहे थे। उसके एक कदम पड़ते तो फिर वह बादलों की
ओर देखती..लंबी सांस छोड़ती..। उसने मेरा कंधा पकड़कर झकझोरा।
सुनो...सूरज को रोक दो..। कह दो इतना उतावला न बने। क्यूं अब सूरज से
तुम्हारी क्या रुसवाई? है रुसवाई। ये आएगा तो अंधेरा छंट जाएगा और जब
अंधेरा छंट जाएगा तो तुम मुझे देख नहीं पाओगे। फिर मैं अपने देस चली
जाऊंगी। फिर तुम मुझे कहां ढूंढते भटकोगे? व्यर्थ होगा, तुम मुझसे फिर
कभी नहीं मिल सकोगे। फिर उसने मेरे कंधे पर अपना सिऱ टिकाया। आंखे
मूंदी., आंखों से खारे पानी की धारा बहाती सपनों में खो गई।
सुनो कोई गीत गुनगुनाओ...। कोई भ्रमर गीत। फिर वह गीत सुनती रही। ये गीत
मन मंदिर में गूंजते रहेंगे। तब लगेगा कोई दूर रहकर भी कितना करीब है।
अब घने बादल साथ छोड़ रहे हैं। रुई के फाहे की मानिंद,,अब तुम्हारा चेहरा
कुछ-कुछ दिखने लगा है। जब ये सबको दिखने लगेगा तब ये मुझे नहीं दिखेगा।
उसने आंखें भींचते हुए बादलों की ओर देखा। तुमने सूरज को रोका क्यों
नहीं। अब जब मेरा चेहरा सबको दिखेगा तो मुझे जाना ही होगा। तुम आना.. जब
शहनाई के शोरगुल के बीच लोग मेरा पीहर छु़ड़ा देंगे। तब मैं स्त्री जैसी
दिखूंगी। जिसकी कोख से मैं जन्मी, शगुन की दही-चीनी खिलाकर वह मुझे जाने
किसे सौंप देगी। मैं जानती हूं वह मेरी मां है, पर वह भी एक स्त्री है।
उसका कलेजा छलनी हो रहा होगा पर वो गीत गाएगी और आंचल में मुंह छिपाकर
रोएगी। बाबा...जिनने उंगली पकड़कर चलना सिखाया, उनके सिऱ का बोझ उतर गया।
कागज के कई बंडल जिन पर मुद्रा होने की पहचान छपी थी। बाबा ने उन अनजाने
लोगों को सौंप दिया था और कहा था बेटी बड़े दुलार से पली है..ये कुछ पैसे
हैं..बेटी के जन्मने का जुर्माना। कोई गलती हो गई होगी खातिरदारी में तो
माफी।
अब शहनाई का शोरगुल तारी था। ये क्या हो रहा है? ये कैसी महफिल सजी है?
लोग-बाग दावतों में मसरूफ हैं। कोई कुछ सुन क्यूं नहीं रहा। कहां है मेरी
नन्हीं परी? वो है... ना..ना नहीं। वो नहीं है। चलो अभी खुद देखेगी तो
भागती आएगी। अरे वो कौन है जिसे परंपराओं के बंधन में राजी खुशी बांधा जा
रहा है? यही है पूनम का चांद। उफ, ये किसने अजीब से रंग इस चांद के
मुखड़े पर फैला दिए हैं। कहां है वह धुला-धुला दमकता मुखड़ा। मैं गौर से
देखता रहा। कुछ रेखाएं उभर आई थीं. उस पूनम के चांद के ऊपर। ये रेखाएं
मेरी जानी हुई थीं। अक्स कुछ-कुछ धुंधलाया सा नजर आ रहा था। मैंने आवाज
दी। आवाज जाने कहां लोप हो गई? अब तुम नजरें क्यों नहीं उठा रही हो?
अंधेरा छंट गया। तुम्हारी लरजती आवाज कानों में गूंज रही है...सूरज को
रोको नहीं तो तुम मुझे नहीं देख पाओगे। उन लोगों को भी नहीं जो मुझे ले
जाएंगे। फिर तुम रो भी नहीं सकोगे खुलकर..क्यूं..क्योंकि न तुम मेरे पिता
हो न भाई। बहन और मां भी नहीं। तुम मेरे लिए पवित्र हो, पर दुनिया तुम्हे
अछूत और अपवित्र मानेगी। अब मैं एक स्त्री हूं और किसी स्त्री को छूना
पाप है।
पवन तिवारी